मैथिली ठाकुर : गीत की राजनीति या राजनीति का गीत
गीत गाना एक कला है, मगर गीतकार का राजनीति में आना झमेला है
*लेखक*---एस.के.ठाकुर, वरिष्ठ पत्रकार
लोक संगीत और भक्ति की परंपरा में मैथिली ठाकुर एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने अपनी आवाज़ से भारतीय लोक संस्कृति को नई पहचान दी है। गाँव-देहात की मिट्टी से उठी उनकी गायकी ने देश-विदेश में भारत की संगीत आत्मा को जिंदा रखा है। वे गीत गाती हैं — भक्ति के, भाव के, और भारतीयता के। लेकिन जब कला राजनीति से टकराती है, तब अक्सर बहसें जन्म लेती हैं। यही हुआ जब मैथिली ठाकुर से पूछा गया कि क्या वे भाजपा से प्रभावित हैं?
मैथिली ठाकुर का जवाब सहज था, परन्तु गूढ़ अर्थों से भरा —
> “भाजपा से प्रभावित होने का एक खास कारण यह रहा है कि पिछले 10 सालों में, मेरे संगीत के क्षेत्र में, मैं जहां भी गई, खासकर मध्य प्रदेश में, वहां भाजपा के लोगों ने मेरा बहुत समर्थन किया है। मैं जहां भी जाती हूं, इस पार्टी के लोग मुझसे मिलने आते हैं और मुझे अपनी बेटी की तरह व्यवहार करते हैं। यह मुझे बहुत अच्छा लगता है।”
यह वक्तव्य न तो राजनीतिक समर्थन का ऐलान था, न ही किसी दल-भक्ति की घोषणा। बल्कि यह एक कलाकार का अनुभव था — जहाँ उसे अपनापन मिला, आदर मिला, वहाँ के प्रति स्नेह भी स्वाभाविक है। मगर आज के माहौल में जब हर बात को राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है, तब एक कलाकार का साधारण कथन भी विवाद का विषय बन जाता है।
🎵 कला का संसार और राजनीति की दीवार
कला का उद्देश्य भावों को जगाना होता है, न कि विचारधाराओं को बाँटना। एक सच्चा गायक, चित्रकार, या लेखक – वह किसी पार्टी से नहीं, जनता की आत्मा से जुड़ा होता है। परंतु जब किसी कलाकार को कोई राजनीतिक दल सराहता या सहयोग देता है, तो समाज तुरंत उसकी निष्ठा पर सवाल उठाने लगता है।
मैथिली ठाकुर जैसी गायिका, जो भक्ति-संगीत और लोकसंस्कृति की वाहक हैं, उनके लिए राजनीति एक बाहरी विषय है। पर फिर भी, जब वे कहती हैं कि भाजपा के लोगों ने उन्हें बेटी की तरह सम्मान दिया, तो यह उनके अनुभव का साक्ष्य है, न कि किसी राजनीतिक रुझान का संकेत।
लेकिन यही समाज का विडंबनापूर्ण चेहरा है —
कला में राजनीति न चाहने वाला समाज, कलाकार के हर शब्द में राजनीति ढूंढ लेता है।
🪶 गीतकार का धर्म – समाज का साक्षी बनना:
गीतकार का असली धर्म सत्य को गाना है।
वह समाज का प्रतिबिंब होता है — कभी राधा की तड़प में, कभी देशभक्ति के सुरों में, और कभी दर्द की करुणा में।
यदि गीतकार या गायक राजनीति की ओर बढ़ता है, तो यह तय मानिए कि उसकी यात्रा आसान नहीं रहती। कला जहाँ भावनाओं पर चलती है, राजनीति वहाँ रणनीतियों पर। दोनों के बीच का फासला बहुत सूक्ष्म लेकिन गहरा होता है।
अतीत में भी हमने देखा है — जब लता मंगेशकर ने “ऐ मेरे वतन के लोगों” गाया, तो उसमें राजनीति नहीं, राष्ट्रभक्ति थी। लेकिन आज अगर कोई कलाकार किसी दल की सरकार की सराहना कर दे, तो उसे प्रचारक कह दिया जाता है। यह मानसिकता ही कला के लिए सबसे बड़ा झमेला है।
💬 लोकप्रियता और राजनीतिक प्रतीकवाद:
मैथिली ठाकुर जैसी लोकगायिका के साथ लोगों की भावनात्मक जुड़ाव है। वे सोशल मीडिया पर सिर्फ गायिका नहीं, संस्कृति की प्रतिनिधि हैं। ऐसे में उनके हर शब्द, हर भाव को राजनीतिक रूप से तोलने की कोशिश होती है।
परंतु यह भूलना नहीं चाहिए कि लोकसंगीत अपने आप में राजनीति से परे एक लोकधारा है।
यह उस जनमानस की ध्वनि है जो खेतों, मंदिरों, चौपालों और नदी के किनारों से उठती है — न कि किसी दल के मंच से।
⚖️ कला और राजनीति का संतुलन
कला राजनीति से दूर रह सकती है, पर समाज से नहीं। और समाज राजनीति से अछूता नहीं। इसलिए कलाकार का राजनीतिक विमर्श में उल्लेख होना अनिवार्य नहीं, लेकिन स्वाभाविक है।
फिर भी, कलाकार का कर्तव्य है कि वह अपने सुरों को विचारधारा के मंच पर नहीं, संवेदना के मंदिर में रखे।
मैथिली ठाकुर ने यही किया — उन्होंने “मुझे बेटी की तरह व्यवहार करते हैं” कहा, न कि “मैं भाजपा की समर्थक हूं”। यह अंतर बहुत बड़ा है। एक कलाकार को सम्मान देने वाला हर व्यक्ति, हर संस्था, उसका आभारी बनता है; चाहे वह किसी भी दल से क्यों न जुड़ा हो।
🌿गीत की आत्मा राजनीति से परे है
राजनीति में कलाकार का आना अक्सर झमेला बन जाता है क्योंकि राजनीति बहसों को जन्म देती है, जबकि कला भावनाओं को।
मैथिली ठाकुर की आवाज़ में जो मिठास है, वह किसी पार्टी से नहीं, भारत की मिट्टी से आई है।
उनके गीतों में माँ की ममता, गुरु का आशीर्वाद, भक्ति की लहर और संस्कारों का सौंदर्य झलकता है।
यदि समाज सच में कलाकारों को निष्पक्ष देखना चाहता है, तो उसे यह समझना होगा कि —
> “गीत गाना एक कला है, मगर गीतकार का राजनीति में आना झमेला है।”
कला को राजनीति से जोड़ना, उस आत्मा को कैद करने जैसा है जो हर दिल में गूंजती है — बिना रंग, बिना दल, सिर्फ भाव और भक्ति के स्वर में।

