जे.पी.की पुण्य तिथि पर नमन
8 अक्टूबर पुण्य तिथि पर विशेष ----------------------------
लोकनायकजयप्रकाशनारायण :संपूर्णक्रांतिकेअमरपुजारी
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*लेखक -एस.के.ठाकुर, वरिष्ठ पत्रकार*
भारत के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर लोकतंत्र की पुनर्स्थापना तक के इतिहास में यदि किसी एक व्यक्तित्व ने नैतिकता, साहस और लोकशक्ति को सबसे ऊँचा स्थान दिया, तो वे थे लोकनायक जयप्रकाश नारायण। उनका जीवन किसी व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि एक युग की गाथा है — संघर्ष, त्याग और परिवर्तन की।
*जननायक का जन्म और प्रारंभिक जीवन
११ अक्तूबर १९०२ को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के सिताबदियारा गाँव में जन्मे जयप्रकाश नारायण साधारण परिवार से थे, पर उनके भीतर असाधारण स्वप्न पलते थे। बाल्यकाल से ही उनमें अन्याय के प्रति असहिष्णुता और स्वतंत्रता की तीव्र चाह थी। उनकी शिक्षा-दीक्षा पटना में हुई, जहाँ वे राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ गए। १९२० में उनका विवाह गांधीवादी नेता ब्रजकिशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती से हुआ, जिन्होंने आगे चलकर उनके जीवन को नैतिक और वैचारिक आधार प्रदान किया।
उच्च शिक्षा के लिए १९२२ में वे अमेरिका गए। वहाँ उन्होंने कठिन परिश्रम करके अपनी पढ़ाई पूरी की — खेतों में काम किया, होटल में बर्तन मांजे, और विचारों में मार्क्सवाद की गहराई तक उतर गए। लेकिन भारत लौटने पर उन्होंने इन विचारों को गांधीवाद और लोकहित के साथ मिलाकर देखा। यह वही वैचारिक मिश्रण था जिसने आगे चलकर उन्हें ‘लोकनायक’ बनाया।
*स्वाधीनता संग्राम का निर्भीक सिपाही
१९२९ में भारत लौटने के बाद जयप्रकाश जी ने नौकरी के अवसरों को ठुकराकर स्वतन्त्रता संग्राम की राह चुनी। वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में थे और अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष के अग्रिम पंक्ति में खड़े हुए।
हजारीबाग जेल में बंद रहते हुए उन्होंने दीपावली की रात जेल की दीवार फाँदकर ऐतिहासिक पलायन किया। नेपाल जाकर ‘आजाद दस्ता’ नाम से सशस्त्र संगठन बनाया। वे गांधी जी और सुभाष चंद्र बोस — दोनों के विचारों को जोड़ने की कोशिश करने वाले दुर्लभ व्यक्तित्वों में से थे। १९४३ में फिर गिरफ्तार होकर लाहौर किले में भीषण यातनाएँ झेलीं, पर आत्मबल अडिग रहा।
*राजनीति से परे समाजसेवा का संकल्प
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब नेहरू जी ने उन्हें राजनीति में आने का आग्रह किया, तब जयप्रकाश जी ने स्पष्ट कहा —
> “मैं सत्ता नहीं, समाज को बदलना चाहता हूँ।”
वे संसद की मर्यादाओं और राजनीतिक ढकोसलों से असंतुष्ट थे। उन्होंने १९५४ में विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन को अपनाया और गया में जीवनभर जनसेवा का व्रत लिया। भूदान आंदोलन, डकैतों का आत्मसमर्पण, और ग्राम स्वराज की अवधारणा — इन सबमें उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही।
*लोकनायक की पहचान : संपूर्ण क्रांति
१९७० के दशक में जब देश भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और राजनीतिक दमन से कराह रहा था, तब जयप्रकाश नारायण ने “संपूर्ण क्रांति” का नारा दिया।
यह केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन था — शिक्षा, अर्थव्यवस्था, नैतिकता, प्रशासन और राजनीति — हर क्षेत्र में आमूल सुधार की माँग।
१९७४ में बिहार छात्र आंदोलन से शुरू हुआ यह जनजागरण पूरे देश में फैल गया। जनता ने उन्हें “लोकनायक” की उपाधि दी। वे जनता के मसीहा, युवाओं के प्रेरणास्रोत और व्यवस्था के चुनौतीकर्ता बन गए।
*आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष
इंदिरा गांधी के नेतृत्व में जब देश पर आपातकाल (Emergency) थोपा गया (२५ जून १९७५), तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण लोकतंत्र के प्रतीक बनकर उभरे। उन्होंने दिल्ली के रामलीला मैदान से ऐलान किया —
> “सैनिकों और पुलिसकर्मियों से कहता हूँ, शासन के अन्यायपूर्ण आदेशों का पालन मत करो।”
ह आवाज़ सत्ता के अहंकार को चीर गई। अगले ही दिन देश में लोकतंत्र पर ताला लग गया, हजारों नेताओं को जेलों में ठूँस दिया गया, और प्रेस पर सेंसरशिप लागू हो गई।
जयप्रकाश जी भी गिरफ्तार हुए, किंतु उनकी आत्मा झुकी नहीं। जेल में रहते हुए वे बीमार पड़े, किंतु लोकतंत्र की लौ बुझने नहीं दी।
*जनता सरकार और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना
संघ, विपक्षी दलों और युवाओं के संघर्ष से जब आपातकाल समाप्त हुआ, तो जनता ने इंदिरा शासन को नकार दिया। १९७७ में जनता पार्टी की सरकार बनी — यह लोकतंत्र की ऐतिहासिक विजय थी। पर जयप्रकाश जी ने कोई पद नहीं लिया। वे सत्ता से परे, केवल सिद्धांतों के प्रतिनिधि रहे।
उनका सपना था —
> “एक ऐसा भारत जहाँ सत्ता का केंद्र व्यक्ति नहीं, जनता हो।”
*अधूरी दास्तान — संपूर्ण क्रांति का स्वप्न
जयप्रकाश नारायण का जीवन अपने आप में एक अधूरी कविता है। वे परिवर्तन की उस यात्रा पर निकले जो आज भी जारी है।
८ अक्तूबर १९७९ को जब उनका देहांत हुआ, तो मानो युग का दीपक बुझ गया।
परंतु उनके विचार आज भी जल रहे हैं —
गाँव-गाँव में, आंदोलन की चेतना में, और लोकतंत्र के हर प्रहरी के दिल में।
लोकनायक की विरासत----
जयप्रकाश जी को १९९८ में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, किंतु उनका असली पुरस्कार जनता का प्रेम और आस्था थी।
उन्होंने सिखाया कि राजनीति केवल सत्ता की दौड़ नहीं, बल्कि जनसेवा का माध्यम है।
उनकी दी हुई सीख आज भी उतनी ही प्रासंगिक है —
> “व्यक्ति नहीं, नीति सर्वोपरि हो।”
अंतिम भाव----
तुम्ही सो गए दास्तां कहते-कहते,
पर हर दिल में तुम्हारा स्वर गूंजता है।
संपूर्ण क्रांति के उस अधूरे सपने को
हर जागरूक भारतीय आज भी आगे बढ़ाता है।
जयप्रकाश जी का जीवन हमें यह विश्वास दिलाता है कि जब तक एक व्यक्ति भी अन्याय के विरुद्ध सच बोलने का साहस रखता है, तब तक लोकतंत्र जीवित रहे
जयप्रकाश जी अमर रहें!
लोकतंत्र के लोकनायक को विनम्र श्रद्धांजलि। 🇮🇳
लोकनायक जयप्रकाश नारायण : संपूर्ण क्रांति के अमर पुजारी
*लेखक -एस.के.ठाकुर, वरिष्ठ पत्रकार*
भारत के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर लोकतंत्र की पुनर्स्थापना तक के इतिहास में यदि किसी एक व्यक्तित्व ने नैतिकता, साहस और लोकशक्ति को सबसे ऊँचा स्थान दिया, तो वे थे लोकनायक जयप्रकाश नारायण। उनका जीवन किसी व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि एक युग की गाथा है — संघर्ष, त्याग और परिवर्तन की।
*जननायक का जन्म और प्रारंभिक जीवन
११ अक्तूबर १९०२ को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के सिताबदियारा गाँव में जन्मे जयप्रकाश नारायण साधारण परिवार से थे, पर उनके भीतर असाधारण स्वप्न पलते थे। बाल्यकाल से ही उनमें अन्याय के प्रति असहिष्णुता और स्वतंत्रता की तीव्र चाह थी। उनकी शिक्षा-दीक्षा पटना में हुई, जहाँ वे राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ गए। १९२० में उनका विवाह गांधीवादी नेता ब्रजकिशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती से हुआ, जिन्होंने आगे चलकर उनके जीवन को नैतिक और वैचारिक आधार प्रदान किया।
उच्च शिक्षा के लिए १९२२ में वे अमेरिका गए। वहाँ उन्होंने कठिन परिश्रम करके अपनी पढ़ाई पूरी की — खेतों में काम किया, होटल में बर्तन मांजे, और विचारों में मार्क्सवाद की गहराई तक उतर गए। लेकिन भारत लौटने पर उन्होंने इन विचारों को गांधीवाद और लोकहित के साथ मिलाकर देखा। यह वही वैचारिक मिश्रण था जिसने आगे चलकर उन्हें ‘लोकनायक’ बनाया।
*स्वाधीनता संग्राम का निर्भीक सिपाही
१९२९ में भारत लौटने के बाद जयप्रकाश जी ने नौकरी के अवसरों को ठुकराकर स्वतन्त्रता संग्राम की राह चुनी। वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में थे और अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष के अग्रिम पंक्ति में खड़े हुए।
हजारीबाग जेल में बंद रहते हुए उन्होंने दीपावली की रात जेल की दीवार फाँदकर ऐतिहासिक पलायन किया। नेपाल जाकर ‘आजाद दस्ता’ नाम से सशस्त्र संगठन बनाया। वे गांधी जी और सुभाष चंद्र बोस — दोनों के विचारों को जोड़ने की कोशिश करने वाले दुर्लभ व्यक्तित्वों में से थे। १९४३ में फिर गिरफ्तार होकर लाहौर किले में भीषण यातनाएँ झेलीं, पर आत्मबल अडिग रहा।
*राजनीति से परे समाजसेवा का संकल्प
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब नेहरू जी ने उन्हें राजनीति में आने का आग्रह किया, तब जयप्रकाश जी ने स्पष्ट कहा —
> “मैं सत्ता नहीं, समाज को बदलना चाहता हूँ।”
वे संसद की मर्यादाओं और राजनीतिक ढकोसलों से असंतुष्ट थे। उन्होंने १९५४ में विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन को अपनाया और गया में जीवनभर जनसेवा का व्रत लिया। भूदान आंदोलन, डकैतों का आत्मसमर्पण, और ग्राम स्वराज की अवधारणा — इन सबमें उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही।
*लोकनायक की पहचान : संपूर्ण क्रांति
१९७० के दशक में जब देश भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और राजनीतिक दमन से कराह रहा था, तब जयप्रकाश नारायण ने “संपूर्ण क्रांति” का नारा दिया।
यह केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन था — शिक्षा, अर्थव्यवस्था, नैतिकता, प्रशासन और राजनीति — हर क्षेत्र में आमूल सुधार की माँग।
१९७४ में बिहार छात्र आंदोलन से शुरू हुआ यह जनजागरण पूरे देश में फैल गया। जनता ने उन्हें “लोकनायक” की उपाधि दी। वे जनता के मसीहा, युवाओं के प्रेरणास्रोत और व्यवस्था के चुनौतीकर्ता बन गए।
*आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष
इंदिरा गांधी के नेतृत्व में जब देश पर आपातकाल (Emergency) थोपा गया (२५ जून १९७५), तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण लोकतंत्र के प्रतीक बनकर उभरे। उन्होंने दिल्ली के रामलीला मैदान से ऐलान किया —
> “सैनिकों और पुलिसकर्मियों से कहता हूँ, शासन के अन्यायपूर्ण आदेशों का पालन मत करो।”
ह आवाज़ सत्ता के अहंकार को चीर गई। अगले ही दिन देश में लोकतंत्र पर ताला लग गया, हजारों नेताओं को जेलों में ठूँस दिया गया, और प्रेस पर सेंसरशिप लागू हो गई।
जयप्रकाश जी भी गिरफ्तार हुए, किंतु उनकी आत्मा झुकी नहीं। जेल में रहते हुए वे बीमार पड़े, किंतु लोकतंत्र की लौ बुझने नहीं दी।
*जनता सरकार और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना
संघ, विपक्षी दलों और युवाओं के संघर्ष से जब आपातकाल समाप्त हुआ, तो जनता ने इंदिरा शासन को नकार दिया। १९७७ में जनता पार्टी की सरकार बनी — यह लोकतंत्र की ऐतिहासिक विजय थी। पर जयप्रकाश जी ने कोई पद नहीं लिया। वे सत्ता से परे, केवल सिद्धांतों के प्रतिनिधि रहे।
उनका सपना था —
> “एक ऐसा भारत जहाँ सत्ता का केंद्र व्यक्ति नहीं, जनता हो।”
*अधूरी दास्तान — संपूर्ण क्रांति का स्वप्न
जयप्रकाश नारायण का जीवन अपने आप में एक अधूरी कविता है। वे परिवर्तन की उस यात्रा पर निकले जो आज भी जारी है।
८ अक्तूबर १९७९ को जब उनका देहांत हुआ, तो मानो युग का दीपक बुझ गया।
परंतु उनके विचार आज भी जल रहे हैं —
गाँव-गाँव में, आंदोलन की चेतना में, और लोकतंत्र के हर प्रहरी के दिल में।
लोकनायक की विरासत----
जयप्रकाश जी को १९९८ में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, किंतु उनका असली पुरस्कार जनता का प्रेम और आस्था थी।
उन्होंने सिखाया कि राजनीति केवल सत्ता की दौड़ नहीं, बल्कि जनसेवा का माध्यम है।
उनकी दी हुई सीख आज भी उतनी ही प्रासंगिक है —
> “व्यक्ति नहीं, नीति सर्वोपरि हो।”
अंतिम भाव----
तुम्ही सो गए दास्तां कहते-कहते,
पर हर दिल में तुम्हारा स्वर गूंजता है।
संपूर्ण क्रांति के उस अधूरे सपने को
हर जागरूक भारतीय आज भी आगे बढ़ाता है।
जयप्रकाश जी का जीवन हमें यह विश्वास दिलाता है कि जब तक एक व्यक्ति भी अन्याय के विरुद्ध सच बोलने का साहस रखता है, तब तक लोकतंत्र जीवित रहे
जयप्रकाश जी अमर रहें!
लोकतंत्र के लोकनायक को विनम्र श्रद्धांजलि। 🇮🇳

